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टोनहिन
News Date:- 2024-06-11
टोनहिन
AJATSHATRU

लखनऊ,11 Jun 2024

टोनहिन -डॉ. रेनू यादव

बहुत सुन्दर बाबू है... जिसका भी हो भगवान सलामत रखें. खा लो बच्चा... खा लो... दो दिन से हमको भी भूख लगी है पेट अईंठा गया है. …लेकिन खुशी है कि किसी का तो पेट भर रहा है. हमेशा हँसते-मुस्कराते रहो. खुश रहो मेरा बच्चा... मेरे लाल.” मदन के खपड़हवा घर के कोने से खड़े होकर मन में ही ये बातें सोचते हुए एकटक निहारते हुए फुलमतिया आँखों से ही रोटी में तरकारी लपेटकर दुआरे पर घूम-घूम कर खा रहे मदन को गोदी में उठाकर दुलराने लगी, पुचकारने लगी. सारी ममता आँखों में उतर आई, करेजा जुड़ा गया.

इतने में मदन के पास खड़ी उसकी बहन सुनरिया को उसकी माई उसका हाथ पकड़कर डाँटने लगी– देख नहीं रही टोनहिनियाँ निहार रही है, इसको अंदर नहीं ले जा सकती? तनिको समझ है कि नाहीं?

कोई देख न ले इसलिए फुलमतिया कोने में छुपकर खड़ी थी, ...लेकिन कोना भी उसे सहारा न दे सका और वह नज़रों में आ गई. उसकी आँखें झरझरा आईं कपारे पर गोबर भरी खाँची उठा वह खेत की ओर चल दी.

रोटी खाते बच्चे को अचानक से उबकाई आने लगी. उसकी माई डर गई. टोनहिनियाँ को सरापने लगी, बाँझ कहीं की… आकर हमरे लइका को निहारती है. उसकी आँख फूट जाए. अन्न के लिए तरस जाए.

यह सुनते ही दसेक बरस की सुनरिया बोल पड़ी– ओकर का दोस है माई, गरमी से रोटी बसिया गया है. हम खाकर देखे थे.

तुम बहुत बुढ़िया जइसे टेर रही हो. टोनहिन की नजर कैसी होती है, वो हम जानते हैं. उसके नजर से रोटी भी बसिया जाए. ओकरे नजर से दो-दो बार गरभ गिर गया है हमार. बाँझ होते-होते बची हूँ. अब तुम दोनों बचे हो. उस पर भी उसकी डाह है.

जैसे-जैसे खेत की ओर फुलमतिया के कदम बढ़ते जा रहे थे, वैसे-वैसे उसके कानों में बच्चे की माई की आवाज धीमी होती गई और मन की हलचल तीव्र होती गई. बच्चा तो यह भी पैदा कर सकती थी, बाँझिन होना इसकी नियति बिल्कुल नहीं थी. एक बार तो पेट से भी थी लेकिन... आँखों में पानी भर आया, चारों दिशा धुँधला गया.

उँखियाड़ी के खेत तक बड़ी मुश्किल से पहुँची, ...लेकिन वह पेड़ी है न की उँखियाड़ी. खड़े होने पर तुरन्त दिख जाते हैं लेकिन बैठने या निहुरने पर छुपना आसान है, फुलमतिया उसमें छुप जाना चाहती थी. वह किसी को दिखाई नहीं देना चाहती. हालांकि खड़ी दुपहरी में लू बहुत तेज चल रही थी, देह झऊँसा जा रहा था.

अचानक से उसे लगा कि कोई घोहा कोड़ रहा है, किसी के हाँफने की आवाज कानों में लू के साथ मिलकर और तेज, कुछ और अस्पष्ट सुनाई दे रही है. इस चिलचिलाती धूप में चिरयी भी पर मारने से डरती है, ऐसे में खेत में घोहा कौन कोड़ेगा? यह देखने के लिए वह जैसे ही दो-तीन घोहा लाँघी, पेड़ी में उसका पैर अँझुरा गया और वह लड़खड़ा गिर पड़ी. कपारे पर से खाँची का गोबर बिखर गया.

उसका मुँह ठीक उन हाँफती साँसों की ओर था जिसे देख हाँफती साँसें हक्का-बक्का रह गईं और अपने अर्द्धनग्न देह को झट से कपड़ों से ढांपते हुए इसके पैरों पर गिर पड़ीं– किसी से कहना मत काकी. तोहार गोड़ (पैर) धर रहे हैं. बहुत बदनामी हो जाएगी. लोग हमको मार ही डालेंगे.

अरे ये तो रेशमा और नारायणा हैं! दोनों पड़ोसी हैं और यहाँ इ गुल खिला रहे हैं. हे भगवान हमें ही ये सब देखना था? मन में सोचते हुए झटके से फुलमतिया उठी और खाँची सँभालते हुए वहाँ से भाग खड़ी हुई. वह जानती है कि रेशमा उससे नफरत करती है, पीठ पीछे टोनहिनिया कहती है, इसका दिया हुआ खाती नहीं, ...लेकिन आज गोड़े पर गिर पड़ी.

उसके कदम लू की गति से बढ़े जा रहे थे. रास्ते में रेशमा की माई ने पूछा भी- रेशमा बहुत देर से दिखाई नहीं दे रही, कहीं खेत की ओर तो नहीं? अचकचा-सी गई फुलमतिया. रेशमा की माई ने फिर से पूछा- कुछ छू दिया है का तुमको कि बोल नाहीं रही... रेशमा को कहीं देखी हो कि नाहीं?

नाहीं कहते हुए फुलमतिया जोर से उबकायी लेते हुए घर की ओर भागी और सीधे घर में पहुँचकर कूंड़ी मार ली. घुट्टी-मुट्टी (गुड़ी-मुड़ी) मारकर बैठ गई और अहक-अहक कर खूब रोई. पुअरा बन लेट गई जमीन पर. उसके भी अंदर दोपहरी की तपती लू चलने लगी. खेत, घर, खलिहान सब जलता हुआ-सा दिखाई देने लगा. उसने अपने को पानी से तर करना चाहा लेकिन पानी भी आग ऊगल रहा था.

उसे पता भी नहीं चला कि कब उसने अपने सारे कपड़े देह से उतार दिए और जोर-जोर से सहलाने और मसलने लगी. उसने बहुत दिनों बाद खुद को आईने में देखा कि वह कितनी सूख चुकी है ! वह तो भूल ही गई थी कि तर होने की इसे भी कितनी जरूरत है ! आखिर इसकी जिन्दगी में कई वर्षों से लू ही तो चल रही है !

उसने अपने सूखे झुर्रीदार गालों को बड़े प्यार से सहलाया, गले को छूआ, अपनी सूखी झूलती छाती को खुद ही चुम लिया. अपने पेट, कमर, योनि पर हाथ फेरते हुए महसूस किया बीस साल पहले मरे हुए पति नेवास के स्पर्श को. आखिर ऐसे ही तो वो सहलाता था उसे और वह खो जाती थी उसके स्पर्श के स्वर्गलोक में, दुनिया से परे होकर कुछ और ही बन जाती थी वह उस समय. अब हरियरायी कहीं नहीं दिखती. इतने सालों बाद फिर से जाग गई हरियाने की चाह...!

बचपन में बियाह और पच्चीस साल की उम्र में ही बेवा बन जाना मई-जून के धूप में चटक कर फटती धरती से कम नहीं था फुलमतिया के लिए. तब से बहुत से गिद्ध उसके आस-पास मँडराने आए, कुछ उसकी सुरक्षा के नाम पर, कुछ सहायता के नाम पर और कुछ मालिकाना हक़ जताने. पर किसी को उसने अपने आस-पास भटकने भी न दिया.

एक रात जब श्रीनथवा उसके घर में आँगन के रास्ते कूद आया तब वह जोर-जोर से चिल्लाई. पूरा गाँव जुट गया और श्रीनथवा कब गाँव वालों में शामिल हो गया, पता ही नहीं चला. सबको यही लगा कि श्रीनथवा जैसा नेक आदमी कभी परायी औरत को छू भी नहीं सकता, जरूर इसी ने बुलाया होगा घर में.

काफी दिनों तक गाँव में उधुआ (आरोप के साथ अफवाह) झेलती रही फुलमतिया. नजरें उठाकर किसी को देखना मुश्किल हो गया. श्रीनथवा की मेहरारू (पत्नी) ने तो घर में पूजा-पाठ भी शुरू कर दिया कि फुलमतिया ने कुछ जादू-टोना कर-करा दिया है, इसलिए वह सुबह से शाम तक फुलमतिया के घर की ओर सम्मोहित होकर ताकता रहता है. फुलमतिया डर के मारे घर से निकलना ही छोड़ दी. कई सालों बाद जब वह कमाने गया तब यह बाहर निकलने लगी.

रात दस बजे के करीब जब वह दुआरे पर खटिया बिछाकर उस पर सो रही थी, उस समय किसी ने उसके मुँह पर कसकर हाथ से दबाते हुए उसकी गटई (गला) दबाना शुरू कर दिया. उसकी साँस रुकने लगी, आँखें खुल गईं. अँधेरे में काली छाया से उसे समझ में आ गया कि यह तो नरायणा है. वह गला दबाते हुए बड़बड़ाए जा रहा था, “साली... हमने तुम्हारे गोड़े पर गिरकर कहा था कि तुम किसी से बताना नहीं फिर भी बता दी. रेशमा को सब पीट रहे हैं. हम तुमको जिन्दा नाहीं छोड़ेंगे. साली टोनहिन हमरे प्यार को नजर लगाती हो. आज किस्सा ही खतम कर देते हैं. न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसूरी.

छटपटाती फुलमतिया ने बड़ी मुश्किल से अपना गला छुटाया और मुँह से हाथ हटाते हुए बोली, “हमने कुछ नाहीं बताया. रेशमवा की माई मिली थी, पूछ भी रही थी... गऊ किरिह हमने कुछ नाहीं बताया.

तुमने नहीं बताया तो किसने बताया... धीमी आवाज में घुड़ककर बोला नरायणा ताकि दूसरे घरों के दुआरों पर सोए हुए गाँव के लोग कहीं सुन लें.

हमके नाहीं पता, गोबर फेंक कर आने के बाद से हम बाहर ही नाहीं निकले... विश्वास करो नरायणा... हमने किसी को नाहीं बताया. ...जिसकी कसम कहोगे हम खा लेते हैं. दबे स्वर में फुलमतिया गिड़गिड़ाई.

खटिया से उठते हुए नरायण ने लेटी फुलमतिया की जाँघ पर एक लात बजाई और निकल गया. फुलमतिया फफक-फफक रोती रही. मन बवंडर बन गया, घूमने लगा इधर-ऊधर. उसे फिर याद आ गई नेवास की कि वह भी तो पीकर आने के बाद जाँघ पर ऐसे ही लात बजा देता था. जब नहीं पीता, तब बहुत प्यार करता और जब पी लेता तो उससे बड़ा दुश्मन कोई और नाहीं होता. बियाह के बाद दो दिन तक तो घर सरग लगा, तीसरे दिन से घर नरक बन गया. बीमार सास की सेवा, ननदों के नखरे, ससुर की घुड़की और पति का लड़कपन सब झेलती रही.

डोमरी गाँव का नेवास चौदह बरस का था और पन्सरहीं की फुलमतिया दस बरस की, तभी बियाह हो गया. ...लेकिन ससुराल आते ही सब भूल गए कि दुलहन भी बच्ची है. चौका-बरतन के अलावा कभी इसे पति का प्यार-वार समझ में आया नहीं. वो घर में सिर्फ खाना खाने आता और कभी-कभी शाम के समय बाजार से चोटहवा गट्टा और चाट-टिकिया लाकर दे देता कि तुम भी खाओ. एक दिन तो शिवरात्रि के मेला से खूब सुन्दर-सी गुड़िया भी लाया जिसने लहँगा पहन रखा था. मन खुश हो गया गुड़िया को देखकर. बहुत दिनों तक गुड़िया के साथ फुलमतिया खेलती रही, रात-रात भर बतियाती रही. उसके साथ हँसती-गाती-रोती रही.

अचानक से एक दिन नेवास को पता नहीं क्या हुआ कि वह रात में फुलमतिया की कोठरी में घुस आया और कहने लगा-तुम हमारी पत्नी हो, हम बड़े हो गए हैं. आखिर दस में पढ़ने लगे हैं. हमने साइंस की किताब में सब पढ़ लिया है कि आदमी-औरत क्या होते हैं ? ...और आज तो भौजी-भइया को एक साथ चिपके देखकर मुझे पता चल गया कि मेहरारू के साथ कैसे रहते हैं”? उसने गुड़िया उठाकर फेंक दी और हिदायत भी दे दी की अब तुम भी बड़ी हो गई हो. गुड़िया के साथ खेलने के दिन नहीं रहे.

पहले तो फुलमतिया रोई-चिल्लाई कि मेरी गुड़िया को क्यों फेका, उसे बार-बार बिस्तर पर रखती, पोंछती-पांछती, सीने से चिपकाए रहती. वह गुड़िया को जितना सीने से चिपकाती, उतना ही नेवास गुस्से से भर जाता. गुड़िया को उठा-उठा कर फेंक देता और खुद उसके सीने से चिपक जाता.

फिर कई दिनों तक यह खेल चलते रहने से फुलमतिया को धीरे-धीरे गुड़िया के बजाय नेवास का सीने से चिपकना अच्छा लगने लगा और गुड़िया कहीं पीछे छूट गई या फिर कहें कि वह उसके पेट में समा गई.

सास-ससुर को भी शायद गुड़िया पसन्द नहीं थी, इसीलिए तो उसका चेक-अप करवाने डॉक्टर के पास भेज दिए और गुड़िया का पेट में होना पता चलते ही उसे पेट से निकालवा कर बाहर करवा दिए. ...लेकिन तब से न जाने ऐसा क्या हुआ कि फुलमतिया को कई सालों तक खून गिरता रहा, शायद गुड़िया उससे नाराज हो गई और जब वह ठीक हो गई तब भी गुड़िया फिर से न तो उसके पेट में समाई और न ही किसी गुड्डे को समाने दी.

नेवास-बऊ के नाम से प्रसिद्ध फुलमतिया अब बांझिन नाम से जानी जाने लगी. नेवास के मरने के बाद वह जिस चीज को देखती, ऐसा लगता कि उस चीज को अपने अंदर ही समा लेगी, अपनी सारी कमी आँखों से ही पूरी कर लेगी. ...जिससे वह गाँव में टोनहिनिया नाम से कुख्यात हो गई, सब उससे बचने की कोशिश करने लगे.

कभी-कभार उसे ही याद आता था कि उसका नाम कभी फुलमतिया हुआ करता था और वह फूल की तरह कोमल, गोरहर (गोरे रंग की) और सुन्दर हुआ करती थी. आज की मदन और रेशमा-नरायणा की घटना के बाद उसने मान लिया कि सचमुच उसकी नजर खराब है वरना सब लोग उसे ही टोनहिनिया क्यों कहतें !

घर और खेत तो नेवास के बड़े भइया के हाथों में चला गया. घर से सटे और बाहर की तरफ खुलती एक कोठरी इसे दे दी गई कि आते-जाते बच्चों या घर गृहस्थी पर इसकी नजर ना पड़े. वे एकाध बोरा धान या गेहूँ साल में फेंक देते हैं इसकी कोठरी के सामने, उसी से गुजारा होता है. उसके बाद कोई पूछता भी नहीं कि भूखे मर रही हो या खाकर. ...लेकिन जब कोई उधुआ उठाता है तो सबके दस-दस मुँह उग आते हैं.

रात भर सोचने-विचारने के बाद फुलमतिया ने टोनहिन जैसे अपशकुनी नज़र से छुटकारा पाने का दृढ़ निश्चय कर लिया. वह भोर होते-होते पहुँच गई मटिहरवा बाबा के पास, जो बड़े जागते देवता के समान थे, जिनके दर से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा. धुइयाँ रमाये माटी में ही हमेशा लोटे रहने वाले बाबा माटी को सोना बना देने में माहिर थे. कितनी बाँझन को बाँझपन से मुक्ति दिए, कितनों को नौकरी मिली, कितने मरते हुए बीमारों को जीवनदान दिया. ये सब कहानी, कहानी नहीं बल्कि वो हकीकत है जिसके बल पर इनके कुटिया के सामने अतवार (रविवार) मंगर (मंगलवार) को भीड़ लगी रहती है.

बाबा टोनहिन नज़र से छुटकारा दिलाने के लिए जो उपाय बताए वह बड़ा ही डरावना था पर फुलमतिया कुछ भी करने के लिए तैयार थी. उसने अमावस्या की काली रात में नहा-धोकर खदरा के बीचो-बीच ऊँख के खेत के पीछे थोड़ा छुपकर सुलगते गोइठा पर जेवनार चढ़ाई. पिसी हरदी (हल्दी) से चौक पूरी, उस पर सात दिया जलाई.

चौक के एक तरफ बाबा का सफेद आसन और दूसरी तरफ लाल चद्दर का अपना आसन बिछाई. पूरे वस्त्र उतार देह पर पीयर सेनूर पोत कर बैठ गई, सातों दीयों की रोशनी में वह सुनहरे रंग में चमकने लगी. बेसब्री से बाबा की प्रतीक्षा में डूबी कभी सियारों से, कभी इंसानों से सहमी बाबा के चिंतन में डूब गई.

आँखें बंद हो गईं. ...जब आँख खुली, मटिहरवा बाबा नग्न अवस्था में भर देह भभूत पोते टिमटिमाती रोशनी में दिख पड़े, साक्षात् शिव भगवान की तरह त्रिशूल लिए. फुलमतिया सरम से लाल हो गई, अपने अंतरंगों पर हाथ रख कर उन्हें छुपाने की कोशिश करने लगी. बाबा भीषण गंभीर स्वर में बोल पड़े-बाबा से परदा. परदा नहीं पसंद बाबा को. भक्त और देवता के बीच परदा सोभा नहीं देता. फल चाहिए तो लाज छोड़ो”.

फुलमतिया संभल गई, उसके हाथ खुद ब खुद हट गए. बाबा आसन ग्रहण करने ही वाले थे कि तभी एक भारी शोर के साथ उमड़ती भीड़ दिखाई पड़ी जो इनकी ही तरफ दौड़ रही थी. “मारो, मारो... काला जादू चल रहा है यहां. फुलमतिया हड़बड़ा गई. सामने देखा तो बाबा गायब हो चुके थे. वो तो देवता थे सो तुरंत आँखों से ओझल हो गए पर फुलमतिया… ?

दूसरे दिन संझा बेरी फुलमतिया को होश आया जब कुछ भैंस चरवाहे बच्चे मुँह पर अंजूरी से पानी डाल रहे थे और वह उनके अंगोछे से ढंकी हुई थी. वह उठने का प्रयास करती लेकिन फिर-फिर जमीन पर लोट जाती. उसकी देह पर काले-लाल चकत्ते पड़े थे जो लाठी-घूंसे के निशान थे. उसे याद आई रात वाली बात जब उस पर भीड़ टूट पड़ी थी. लाठी-घूंसे के बीच हाथ मारकर उसकी छाती को निचोड़ लिया गया था. योनि पर लाठी और एड़ी के घाव अब भी टीस रहे थे. बड़ी मुश्किल से वह अंगोछा लपेट घर लौटी और हफ्ते भर कराह-कराह कर खुद ही हरदी-प्याज पीस-पीसकर काले-लाल चकत्तों पर छापती रही.

फुलमतिया पहले ही खेत, घर, पति, परिवार सब खो चुकी थी, सिर्फ बची थी तो उसकी इज्जत. ...लेकिन अब वह भी नहीं बची. अब उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था. उसने सुना था कि भीड़ के चेहरे नहीं होते लेकिन उसने भीड़ में कुछ आवाजें और चेहरे पहचान लिए थे. श्रीनथवा, नेवास के बड़े भइया और गिद्ध लोग भी उनमें शामिल थे. उसे समझ नहीं आ रहा था कि उसे किस बात की सजा मिली है... टोनहिन होने की, सर पर मरद का हाथ न होने की या फिर औरत होने की. कुछ दिनों तक वह सुन्न रही जैसे काठ हो गई हो.

इतना सब होने पर भी गाँव वालों को चैन नहीं आया, उन्हें अपने बाल-बच्चों की चिंता सताए जा रही थी. गाँव को भी टोनहिनिया के टोना से बचाना था. इसलिए पूरे चिंतन-मनन के बाद गाँव वाले दरवाजे पर लाठी लेकर आ खड़े हुए. उसकी कोठरी के दरवाजे पर लाठी ठोंक-ठोंक कर उसे सुनाए जा रहा थे- निकल टोनहिनिया, बाहर निकल….

गाँव में रह कर काला जादू करती है? अब तुम्हें हम गाँव में नाहीं रहने देंगे.

हमारे बाल-बच्चों के लिए खतरा बन बैठी है, इसका तो जिन्दा रहना भी ठीक नाहीं.

निकल बाहर... आज तुझे घर छोड़ना ही पड़ेगा.

फुलमतिया थोड़ी देर पहले ही भात बना रही थी हांड़ी में. इतनी आवाजें सुनकर उसे कुछ समझ में नहीं आया और वह जलती हांड़ी हाथ में लेकर बड़ी ही दृढ़ता के साथ कोठरी का दरवाजा खोल सीना ताने सामने खड़ी हो गई- कहो, का कहना है टोनहिनिया से... घर छोड़ दे या गाँव या तुम लोगन को”?

गाँव वालों को लगा था कि टोनहिनिया रोते-बिलखते हाथ जोड़े खड़ी होगी. जिस पर एकाध लाठी और बजाया जा सकता है. ...लेकिन उसके इस अवतार से वे सकपका गए. एक कदम पीछे हो गए. तब पीछे से एक आवाज आई- तुम गाँव वालों के लिए खतरा हो, तुम्हे ये गाँव छोड़ना पड़ेगा….

हाँ, सही कह रहो तुम लोग… हम खतरा तो हैं . अमावस्या की रात ऐसा टोटका किए हैं कि अगर गाँव छोड़कर हम चले गए तो पूरा का पूरा गाँव एक साथ साफ हो जाएगा. लइके बच्चे का... तुम लोगन के नात-रिश्तेदारों पर भी बजर पड़ेगा. (गाँव वाले एक-दूसरे का मुँह देखने लगे)  मुँह का ताक रहे हो… ये भात देख रहे हो, इसी भात में अभी-अभी मटिहरवा बाबा का दिया सेनूर मिलाई हूँ, यहीं पर खड़े खड़े तुम लोगों को हैजा पकड़ लेगा... बचना चाहते हो तो यहीं लाठी फेंको और घर लौटो... जाओ देखो तुहार बाल-बच्चे सलामत हैं कि नाहीं....

ऐसे कैसे हमारे बाल-बच्चे... एक आदमी डाँटने के स्वर में बोलना शुरू ही किया था कि फुलमतिया ने बात काट दी.

विश्वास नहीं हो तो मटिहरवा बाबा से जाओ पूछ लो, उन्होंने ही सेनूर हमको दिया है. उनकी पूजा तुम लोगों ने भंग कर दी ना... उन्होंने मुझे शक्ति दी है पूरे गाँव को जलाकर भस्म करने की.

गाँव के कुछ लोगों के हाथ से यह सुनते ही लाठी छूट गई क्योंकि मटिहरवा बाबा की किरपा से उनके घर में भी औलाद आई थी, धन-सम्पत्ति बढ़ी थी. फुलमतिया ने बड़े ही गर्व से सर उठाकर कहा, “भाई जी (नेवास के बड़े भाई से) अगर भला चाहते हो अपने घर की तो मेरा खेत और घर हमें लौटा दीजिए... और हर साल पूरे गाँव से एक-एक बोरा अनाज, धान की बेरी, ...और गेहूँ कटे तब गेहूँ... हमरे घर आना चाहिए. ...अगर हमार शर्त मंजूर है तो हम गाँव वालों को बख्श देंगे.

कथाकार परिचय

-डॉ. रेनू यादव

मो. 9315335982

असिस्टेंट प्रोफेसर,

भारतीय भाषा एवं साहित्य विभाग (हिन्दी)

गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, यमुना एक्सप्रेस-वे,

गौतम बुद्ध नगर, ग्रेटर नोएडा - 201312

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